Wednesday 13 May 2015

हवा बसंती बौराई

गुन-गुन गुंजित भ्रमर गीत सुन
कली सुंदरी मुस्काई,
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसंती बौराई !!
- कंचन पाठक.

 Published in -
कादम्बिनी, अमर उजाला, पारस परस    




Monday 11 May 2015

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपसी रिश्ते-नाते निभाना मज़बूरी या ज़रूरत ?


" रिश्ते-नातों में गायब हो रही मिठास "
आधुनिक जीवन का अगर कोई सर्वाधिक उपयुक्त पर्याय है तो वो है आत्मकेन्द्रित होता मनुष्य । महानगर तो महानगर ग्रामीण समाज भी इस आत्मकेन्द्रित होती भावना से अब अछूता नहीं रहा । अगर देखा जाए तो मानव सभ्यता की सारी विकास कथा उसके इर्द-गिर्द के रिश्तों-नातों एवं समाज से हीं विनिर्मित हुई है । यदि मनुष्य अपने सुख-दुःख, अपने जीने-मरने को मात्र अपने तक सीमित किये रहता तो ना परिवार बनता ना समाज, ना राष्ट्र, और ना हीं देश । संग और साथ रिश्ते और नाते मनुष्य की मजबूरी नहीं ज़रूरत है । आज के अन्तराष्ट्रीय युग-संसार में जहाँ एक ओर जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है वहीँ हमारा व्यव्हार अत्यंत सीमित और एकांगी हो चला है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और रिश्ते-नाते निभाना सामाजिकता के अनिवार्य नियम का हिस्सा हैं । मनुष्यता को जीवित रखना है तो रिश्ते-नातों को जीवित रखना हीं होगा । किन्तु आज दिनप्रतिदिन बढ़ते तलाक के किस्से, विलुप्तप्राय होते संयुक्त परिवार और बेतरह बढ़ते वृद्धाश्रम एवं झूलाघर यही बयान करते हैं कि आधुनिक समाज में रिश्ते नाते शनैः शनैः अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से पोषित भारतीय संस्कृति आज अपने हीं परिवारों,
रिश्तेदारों से कटता जा रहा है ।


रिश्तों के प्रकार :-

1)
जन्मजात रिश्ते - ये उस तरह के रिश्ते हैं जो हमें जन्म के साथ हीं मिलते हैं । इन पर हमारा कोई वश नहीं होता जैसे, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, नाना-नानी इत्यादि । ये खून से बंधे रिश्ते होते हैं । कई बार इस तरह के रिश्तों में दूरी या कड़वाहट भी आ जाती है, बावजूद इसके ये रिश्ते टूटते नहीं ।
आज का विश्व कुछ सदियों पहले वाला एकाकी और एकांगी विश्व नहीं रहा । वैश्वीकरण के इस ज़माने को अन्तराष्ट्रीय युग-संसार कहना ज्यादा उचित होगा । जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है । अधिकांश व्यक्ति शिक्षित हैं और जीविकोपार्जन हेतु घर-परिवार-समाज से दूर रहना सामान्य माना जाने लगा है । लम्बी दूरियों एवं अवकाश के अभाव में ऐसे लोगों के पास सारे के सारे सगे-सम्बन्धियों से मिलना-जुलना मुमकिन नहीं हो पाता । ऐसे में रिश्ते फ़ोन या ईमेल के सहारे बस जैसे-तैसे चलते रहते हैं ।

2)
हमारी पसंद के रिश्ते - ये वैसे रिश्ते हैं जो हम स्वयं अपनी मर्ज़ी से बनाते हैं । इसमें ना तो किसी प्रकार की मजबूरी होती है और ना हीं ये जबरन थोपे हुए होते हैं । जैसे - दोस्त, प्रेमी/प्रेमिका, प्रेम विवाह करने वाले पति/पत्नी । अधिकतर ये रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं, उतनी हीं जल्दी ख़त्म भी हो जाते हैं । कई बार अपनी मर्ज़ी से बनाए गए ये रिश्ते आजीवन भी चलते हैं फ़िर भी इनकी मिठास ख़त्म नहीं होती, तो कई बार बीच सफ़र में हीं इनमें दरारें पड़ जाती हैं । यह स्थिति बेहद तकलीफ़देह होती है । चूँकि ये रिश्ते हम स्वयं की मर्ज़ी से बनाते हैं इसलिए इससे मिलने वाली कड़वाहटों को भी हमें अकेले हीं झेलना पड़ता है ।

3)
सामाजिक रीति-रिवाज़ों से जुड़े हुए रिश्ते - ये माता-पिता अथवा परिवार, समाज द्वारा तय किये गए रिश्ते होते हैं जैसे - पति/पत्नी, ननद/देवर/भाभी/सास-ससुर इत्यादि के रिश्ते ।
इनमें से पति पत्नी के रिश्ते में सबसे अधिक चुनौतियाँ होती हैं । आजकल अधिकांशतः पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं । घर की जिम्मेदारी और ऑफिस का कार्यभार मिश्रित होकर तनाव के स्तर को उच्च बनाए रखता है । छोटी-छोटी बात पर एक-दूसरे के ऊपर बिफ़र पड़ना, क्रोध और चिड़चिड़ापन आम बातें हैं । अगर परिवार में कोई सुलह-समझौता, बीच-बचाव करवाने वाला ना हुआ तो ब्रेकअप और तलाक़ भी सामान्य-सी बात है । अगर किसी मजबूरीवश संबंध आगे चलता भी है तो "इमोशनल ब्रेकअप" तो तय सी बात है ।
इसके आलावा आजकल कुछ नए प्रकार के रिश्ते भी बन रहे हैं ...

4) आभासी संसार के रिश्ते - इन्टरनेट पर बनने वाले ये रिश्ते काफ़ी दिलचस्प होते हैं । दो सर्वथा अनजान व्यक्तियों के बीच कभी-कभी परिचित रिश्तों से भी अधिक नजदीकियाँ और मिठास आ जाती है ।

5) कार्यक्षेत्र के रिश्ते – कार्यालय में साथ-साथ काम करते हुए कभी-कभार दो लोगों के बीच बेहद आत्मीय रिश्ते बन जाते हैं । स्थानान्तरण के साथ-साथ कभी तो ये रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं, कभी-कभार लम्बे समय तक साथ चलते हैं ।
खैर रिश्ता चाहे कोई भी हो वह टिकता केवल परस्पर आदर, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता एवं प्रतिबद्धता की सतह पर हीं है । रिश्तों में अगर स्नेह-प्रेम की ऊष्मा और आदर-विश्वास की संजीवनी हो तो इसके रेशमी धागे में इतनी ताकत होती है कि यह दो विपरीत विचारधारा, दो विपरीत परिवेश वाले व्यक्तियों को भी अटूट मधुर बंधन में बाँध देती है । किन्तु आज के हाईटेक ज़माने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि व्यक्ति के पास रिश्तों की मिठास को महसूस करने, रिश्तों को ख़ूबसूरती के साथ जीने का वक़्त हीं नहीं है ।
आधुनिक समय की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच रिश्तों को समझने, बातचीत करने का अवसर हीं नहीं मिलता । ऐसे में रिश्तों का संतुलन बिगड़ जाता है और ग़लतफ़हमियाँ, क्रोध और फ्रस्ट्रेशन सर उठाने लगते हैं । सम्बन्धों में इस तरह की नकारात्मक भावनाओं का उत्पन्न होना इस बात का संकेत है कि रिश्तों के इस पड़ाव को आपके ध्यान, आपके केयर की ज़रूरत है । जो व्यक्ति यहाँ चेत गया उसके संबंध बच जाते हैं, अन्यथा सम्बन्धों को ध्वस्त होने में समय नहीं लगता ।
आजकल की प्रॉब्लम ये है कि लोग प्यार लेना तो चाहते हैं लेकिन देना नहीं चाहते । दूसरों से उम्मीद तो करते हैं पर स्वयं उम्मीदों पर खरा उतरना ज़रूरी नहीं समझते । स्वयं तो अपेक्षाएँ रखते हैं पर दूसरा भी कुछ अपेक्षाएँ रखे यह उन्हें मंज़ूर नहीं । वैसे रिश्ता चाहे जन्म का हो या हमारी पसंद का ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाओं से भी रिश्तों का दम घुट जाता है ।

बदलते युग के साथ रिश्तों की परिभाषा चाहे बदल जाए, पर रिश्तों की अहमियत आज भी उतनी हीं है । यह ना कभी ख़त्म हुई थी, ना कभी होगी । यह एक कटु सत्य है कि आजकल अधिकांश व्यक्तियों में सहनशीलता का घोर अभाव हो चला है । ऐसे में झुकना, सहना, समझौता करना, रिश्तों को जीवित रखने के लिए ख़ुशियों का परित्याग करना ये सब बीती बातें हो चुकीं हैं । रिश्ते नाते जिनके बगैर मनुष्य अधूरा है आज अपना महत्व और मिठास खोते जा रहे हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही लगता है कि आज के परिपेक्ष्य में रिश्ते-नाते निभाना मात्र एक मजबूरी बन के रह गयी है ।

© कंचन पाठक.

Monday 8 December 2014

" सिद्ध तारापीठ "



दीपावली की अर्धरात्रि को हमारे देश में अमोघ शक्ति की जगद्धात्री देवी महाकालिका की पूजा का प्रावधान है, इसे काली पूजा कहते हैं । कार्तिक अमावस्या की मध्यरात्रि ... जब अंधकार की कालिमा अपने चरम पर होती है उस वक़्त तंत्र की साधना अत्यंत प्रशस्त् मानी जाती है । घोर अंधकार यानी काला रंग जो न केवल वैराग्य का प्रतीक है बल्कि सबसे बड़ी बात है कि काले रंग पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता । यह अंधकार से प्रकाश की ओर भी ले जाता है । तंत्र विद्या कोई निंदनीय विद्या नहीं अपितु यह परमात्मा की आराधना का हीं मार्ग है, जिससे महानिर्वाण की प्राप्ति होती है । आवश्यकता है इसके सही अर्थ को समझने की । वास्तविक साधना चाहे वो तंत्र की हो या मंत्र की मनुष्य को उठाती है, गिराती नहीं ।
जिस प्रकार वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के श्रीमुख से हुई उसी प्रकार तंत्र की उत्पत्ति भगवान रूद्र अर्थात शिव के मुख से हुई । तंत्र की दस महाविद्याओं का प्राकट्य आद्याशक्ति शिवा के अंगों से हुआ । पौराणिक मान्यतानुसार माना जाता है कि सती के शरीर के टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे
, वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। माना जाता है कि तारापीठ वह स्थान है, जहाँ सती के तीसरे नेत्र का निपात हुआ था । अत्यंत शक्तिशाली सिद्ध तंत्रस्थलियों में से एक अति महत्वपूर्ण तंत्रस्थली है "सिद्ध तारापीठ" ... पश्चिम बंगाल में कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर वीरभूम ज़िले में स्थित 51 शक्तिपीठों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध धार्मिक तांत्रिक स्थल । इस स्थान को "नयन तारा" भी कहा जाता है । चारों ओर से द्वारिका नदी से घिरा यह सिद्ध शक्तिपीठ श्मशान के भीतर हीं अवस्थित है । इस श्मशानभूमि को 'महाश्मशान घाट' के नाम से जाना जाता है, इस महाश्मशान घाट में जलने वाली चिता की अग्नि कभी बुझती नहीं है । मान्यता है कि इस महाश्मशान में जिस दिन शव नहीं जलते उस दिन माता तारा को भोग नहीं लगता और न हीं तंत्रसाधक कुछ खाते-पीते हैं ।
तारापीठ - कलियुग में वामाखेपा की साधना स्थली बनी । तारा - अर्थात तारने वाली । इन्हीं माँ तारा के परम भक्त थे वामाखेपा
, जिनकी प्रबल तंत्र साधना से यह स्थल सिद्ध तंत्र पीठ के रूप में विश्वविख्यात हुआ ।
वामा एक गरीब ब्राह्मण के पुत्र थे । लोककथानुसार वह एक सिद्ध आत्मा थे
, जिन्होंने अपने पिछले जन्म की सिद्धि को पूर्ण करने के लिए माँ तारा की धरती पर जन्म लिया था । बचपन से हीं वामा कभी पेड़ पर बैठे-बैठे तो कभी गायों को चराते भावसमाधि में लीन हो जाते थे तो कभी स्वतः संभाषण में माँ तारा - माँ तारा करते थे । इसलिए लोग उन्हें खेपा (पागल) कहने लगे । एक रात वामा अत्यंत व्यग्रता से आँगन में चक्कर काट रहे थे । सारा संसार सोया हुआ था । माँ से पुत्र की दशा देखी नहीं जा रही थी । बेटे को सोने को कहा तो वामा ने माँ के चरणों में बैठ आशीर्वाद माँगा और संन्यास की अनुमति ले घर से निकल पड़े । उसके बाद वामा घर नहीं लौटे श्मशानभूमि में रहकर माँ तारा की साधना करते रहे ।
कहते हैं वामा माँ तारा से सीधे-सीधे बात किया करते थे
, अपने हाथों से भोग बनाकर तारा को खिलाते थे । वामाखेपा के मुख से जब भी जो भी निकला वह अक्षरशः सत्य साबित हुआ । आज भी कहते हैं कि तारापीठ आने वाले श्रद्धालुओं की मुरादें अवश्य पूरी होती हैं । तारापीठ में बाबा वामाखेपा के चमत्कारों की सैंकड़ों हज़ारों कहानियाँ विख्यात है ।
वामा पूर्णतः निरक्षर थे । पुस्तकों का कोई ज्ञान नहीं था ... निरे अँगूठाछाप किन्तु तंत्रसिद्धि प्राप्त कर उन्होंने आध्यात्म की असाधारण ऊँचाइयों को छुआ । कहते हैं कि जब वह बोलने लगते तो ज्ञान की ऐसी-ऐसी गूढ़ बातें उनके मुख से निकलती थीं कि लोग चकित हो जाते । बड़े से बड़ा विद्वान उनके समक्ष मुँह नहीं खोल पाता । वामा अपनी सगी गर्भधारिणी माँ को छोटी माँ कहते थे एवं माँ तारा को बड़ी माँ कहते थे । मृत्यूपूर्व वामा ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि उन्हें उनके गुरु के बगल में समाधि दी जाए ।
कार्तिक अमावस्या की तिमिर रात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि एवं भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को इस सिद्धपीठ में दूर-दूर से तंत्रसाधक साधना के लिए एकत्रित होते हैं । उस समय यहाँ का वातावरण अत्यंत रहस्यमय एवं भीतीपूर्ण होता है । थोड़ी-थोड़ी दूरी पर तांत्रिकों की फूस की छोटी-छोटी कुटिया जिसके अन्दर सिन्दूर से पुती हुई मानव खोपड़ी एवं हड्डियाँ ... पूरी-पूरी रात तांत्रिक साधना में लीन रहते हैं ... दिगम्बर रूप में श्‍मशान साधना
, शिव साधना, एवं शव साधना करते हैं । कहते हैं शव साधना के चरम पर मुर्दा बोल उठता है और साधक की सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण करता है । इस साधना में सामान्य जनों का प्रवेश वर्जित रहता है ।
आज के युग में जब मानव मंगल पर जा पहुँचा है और चाँद पर बस्ती बसाने की बातें सोच रहा है तब इस तरह की चीज़ें विस्मयकारी एवं अविश्वसनीय भले हीं लगे किन्तु यह सत्य है ।
जी हाँ अभी भी समाज में ऐसा एक समुदाय
, एक वर्ग मौजूद है जो सृष्टि के रहस्य को जानने के लिए अनेक सिद्धियाँ कर रहा है एवं अपना सम्पूर्ण जीवन तंत्रसिद्धि साधना के लिए समर्पित कर देता है ।
( तारापीठ यात्रा के दौरान तांत्रिकों से बातचीत एवं संस्मरण पर आधारित )

  - कंचन पाठक.



Saturday 17 May 2014

" कैसे हो तुम "

मालकोश का राग मधुर
या आतुर प्रश्न तुम्हारा
कैसे हो तुम पूछ रहा वो
  झिलमिल निमिष सितारा
महानील में लाखों तारे
कहता है इकतारा
टिम-टिम करता नीला तारा
 जान से मुझको प्यारा  !!

© कंचन पाठक.
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'' अब आओ ना ... ''


निस्तब्ध महानील में
उज्जवल नक्षत्र छटा
की दीप्ति जगमगाहट
मधुरालाप करती रही ,
अविकसित चन्द्र की
हिमांशु निःसृत
अनूप शीतल आभा में 
मैं तुम्हें दृगम्बुपूरित
नयनों से तकती रही ...
तुम्हारा हिरण्यवर्ण 
पद्माक्ष मोहकस्वरूप
सुलज्जित पलकावलियों
में निरंतर संजोये
स्नेह-स्वप्न में
निमग्न रही
ओ मेरे कनु ....
तुमसे मिलन की 
मेरी उद्दाम उत्कंठा
अर्णव की अकुलाई लहरों सी
युगों -युगों से है 
अन्यमनस्क निनाद में लीन  ...
आओ ना ..
अब आओ पद्मनाभ 
इस अपरिमित रोदनमय
संसृति मरुस्थल में
विदग्ध हो जल जाऊं
उस से पहले
हिमबिंदु स्निग्ध
सुकोमल अंक में
समासीन कर लो प्रिय ...
प्रेम प्रवाहिनी शीतल मंदाकिनी
में लीन कर लो प्रिय ...

© कंचन पाठक.
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Published in Sanmarg Jharkhand (11 May 2014)

" याद सदा तुम रखना "


  ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
 तेरा यहाँ न निज कुछ अपना,
ऐ ! मानवता के छुपे शिकारी
  यह याद सदा तुम रखना |
कर्मों का बड़ा गणित है पक्का
     जो जस करे सो पाए,
   बोये पेड़ बबूल जो जिसने
     आम कहाँ से खाए |

कर नैतिक जीवन का मूल्यांकन
     जोड़ घटा जो आए,
गिन धर पग तब जीवन पथ पर
  अमी हर्ष निधि तुम पाए |

पोत ना कालिख स्वयं के मुख पर
   मन दर्पण उज्जवल रखना ,
     ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
  तेरा यहाँ न निज कुछ अपना ||
  क्यूँ कार्य - कलापों से अपने
   मानवता को लज्जित करते,
   पल-पल बढ़ती सुरसा मुख-सी
 धिक् अघ की न वदन पकड़ते |

   क्यूँ निज समाज और देश के
   आँचल पर हो दाग लगाते,
 अरे क्या ले जाओगे अपने संग
     जग से जाते - जाते |

    बैठ कभी चित्त शांत बना
    मन शीशे में मुख तकना ,
    ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई
  तेरा यहाँ न निज कुछ अपना ||

© कंचन पाठक.
All rights reserved.
Published in Sanmarg Jharkhand (11 May 2014)

Thursday 20 March 2014

" ये परिंदे "


उस सामने वाले रौशनदान में...
परिंदों का एक जोड़ा
अल्लसुबह से
अपना आशियाना बनाने की
जुगत में है
घास-फूस , खर-पतवार
चोंच में उठा-उठा कर
घरौंदे की रूप-रेखा
तैयार की जा रही है
पिछले साल भी यही हुआ था
दबे पांव
सीढ़ियों के किनारे से
ग्रिल तक जा कर
देख आई थी मैं
तीन अंडे थे
प्यारे-प्यारे से
गौरैया उनके ऊपर बैठी रहती
और गोल-गोल आँखों से
वो मुझे और मैं उसे
ताकते रहते
रोज़ सुबह
मैं चावल के दाने
उसके घोंसले के पास
बिखेर आती ,और,
गौरैया थोड़ी-हीं देर में
फुदक-फुदक कर, चुग-चुगकर
उन्हें साफ़ कर देती
अंडे बड़े होने लगे थे
एक दिन खुद को रोक ना पाई
एक अंडा उठा कर
अपनी हथेली पर रखकर
प्यार से सहलाया
आह ! कितने चिकने ...
और फिर
वापस घोंसले में रख दिया
दुसरे दिन......
सुबह-सुबह
चावल ले कर
ज्यूँ हीं बाहर आई
तो देखती क्या हूँ..
सामने...
नरम-नरम, पीला-सा
सफेद-सा , लसलसा-सा
बिखरा पड़ा है
उफ़ उफ़ उफ़.................
हम इंसान क्या इतने गंदे होते हैं
कि परिंदे
अपनी आने वाली नस्लों पर
हमारी छुअन तक बर्दाश्त नहीं कर पाते
अपने ही अंडे को
नीचे गिरा कर
फोड़ दिया था
उसने...........
© कंचन पाठक.
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